किंकर्तव्यविमूढ़
"किंकर्तव्यविमूढ़"
पूरा था,
देखा था,
झील के ऊपर,
चाँद आज।
कल भी था,
कल भी होगा,
उसको क्या है
काम काज़?
उजला कभी,
मध्धा कभी,
नापसंद होगी
सादगी!
रोज़ आता,
रोज़ जाता,
मैंने ना
परवाह की।
परसो फिर
जब देखूंगा
तो शायद
यह होगा नहीं ।
द्वेष होगा,
क्रोध होगा,
पर चाँद की
इसमें क्या गलती ?
सोचूंगा, बदल
गया यह भी;
गया यह भी;
किस बात का है
इसमें इतना गुरूर?
और अंतरिक्ष में,
दूसरी तरफ़
बैठा होगा चाँद,
किंकर्तव्यविमूढ़ ।
- गौतम
( किंकर्तव्यविमूढ़- confused, not sure what to do. )

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