ईमारत
चार मंजिला ईमारत की छत के एक सिरे पे,
टूटे हुए कवेलुओं के टुकड़ों को,
एक दूसरे के ऊपर हौले हौले जमाकर
कभी भी गिरने को आतुर,
पता नहीं टूटे टुकड़ों से बनके भी
कैसे खुद को संभाले हुए है।
न नींव है न दीवारें,
न कोई छत है न दरवाज़ा;
सर छुपाने की भी जगह नहीं
सर छुपाने की भी जगह नहीं
तब भी घर सी लगती है।
सदियों तक साबुत रहने की
न उम्मीद है न इच्छा है ।
फिर से बिखर जाए भी तो क्या फर्क है?
टूटी ही तो थी पहले भी।
डूबते सूरज की आड़ में खूबसूरत लग रही है,
हवाओं के झोकों से कांप भी रही है ,
पर कल फिर आऊंगा इस इमरात को देखने
जिसका नाम मैंने ज़िन्दगी रखा है ।
-गौतम

Dil pe lagi hai!
ReplyDeleteDil ke lie hi thi ;) Dhanyawaad.
DeleteGauutamm! Wow. *.*
ReplyDeleteNever knew you write so well. :)
Waiting for the next one.
Thank you Anviti, soon. :)
Deleteवाह । अद्भुत 😍
ReplyDelete(Y) :)
DeleteGoogle Translate is not working english me likh
ReplyDeleteBhai try to upload the recorded version....
ReplyDeleteI'm on it Ankit :)
Deleteग़ज़ब...:)
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