ईमारत

चार मंजिला ईमारत की छत के एक सिरे पे,
टूटे हुए कवेलुओं के टुकड़ों को,
एक दूसरे के ऊपर हौले हौले जमाकर
मैंने एक और ईमारत बनाई है।

हल्की हवा से भी हिलती,
कभी भी गिरने को आतुर,
पता नहीं टूटे टुकड़ों से बनके भी
कैसे खुद को संभाले हुए है।

न नींव है न दीवारें,
न कोई छत है न दरवाज़ा;
सर छुपाने की भी जगह नहीं
तब भी घर सी लगती है।

सदियों तक साबुत रहने की 
न उम्मीद है न इच्छा है ।
फिर से बिखर जाए भी तो क्या फर्क है?
टूटी ही तो थी पहले भी।

डूबते सूरज की आड़ में खूबसूरत लग रही है,
हवाओं के झोकों से कांप भी रही है ,
पर कल फिर आऊंगा इस इमरात को देखने
जिसका नाम मैंने ज़िन्दगी रखा है ।

-गौतम 


             

Comments

  1. Dil pe lagi hai!

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  2. Gauutamm! Wow. *.*
    Never knew you write so well. :)
    Waiting for the next one.

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  3. वाह । अद्भुत 😍

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  4. Google Translate is not working english me likh

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  5. Anonymous18 June

    Bhai try to upload the recorded version....

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