नज़्म

रात ढलने को है और,
कोई नज़्म आती नहीं ।

सोचा था आज कैसे भी,
जोड़-तोड़ के फिर से, कुछ
एहसासों को अंजाम दूंगा ।

ढूंढ लूंगा कोई अजनबी और
उसको "दोस्त" नाम दूंगा,
फिर करूँगा ढेर सारी बातें,
अपनी, उसकी,
और आगे चल दूंगा ।

फिर किसी पड़ाव पे
कोई मिल ही जाएगा, 
बांवरा सा मन ये
बहल ही जाएगा ।

और ऐसे ही, जमती रहेंगी महफिलें,
चलते रहेंगे सिलसिले,
दौड़ते-भागते ऐसे ही
हाथ ज़िन्दगी का थाम लूंगा ।

पर कमबख़्त, याद ये तेरी
दिल से जाती नहीं ।
रात ढलने को है और,
कोई नज़्म आती नहीं ।

क्या गिला करें ?
जो फब्तियां कसता शहर है,
पर एक तू ही है
जो इस बात से बेख़बर है । 

वो चार शब्द जो तुझसे बोलने थे
उनको अब कैसे बाहर आने का पैगाम दूंगा ?
टकराते हैं अंदर ही, और गूंजते हैं
अंदर ही अंदर उनको बाँध लूंगा
कभी फिसल कर बाहर निकल भी जाएँ,
सुन लूंगा खुद, और हँस दूंगा ।

और ऐसे ही, जमती रहेंगी महफ़िलें,
चलते रहेंगे सिलसिले,
दौड़ते भागते ऐसे ही 
हाथ ज़िन्दगी का थाम लूंगा ।

पर यूँ राख में मिलने से पहले
बस एक ख़्वाहिश है,
क्या एक बार फिर तुझसे
गुफ़्तगू  की गुंजाइश है ?

पर कमबख़्त, आवाज़ ये तुझ तक
मेरी जाती नहीं
रात ढलने को है और,
कोई नज़्म आती नहीं ।


- गौतम

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