अज़ान
बचपन के दिन भाग गए,
माँ को लगता था कि हम
खुद ही नींद से जाग गए।
पर कोई भी मौसम,
कैसा भी दिन हो,
बारिश का शोर, हवाएं, कोहरा,
या बिना चाँद की रातें,
उसको रोक नहीं पाती थी।
पर किसको पता था कि,
पास वाली मस्जिद से,
रोज़ सुबह चार बजे
निकल कर अज़ान,
सीधे मुझको जगाने आती थी।
फिर इश्क़ हुआ, परवान चढ़ा,
कोरे पन्नो में रंग दिखे।
फिर टूट गया, एहसास हुआ,
हमको मिथ्या के ढंग दिखे।
हर एक शाम उदासी की
मैं बैठा रहा महीने भर।
हर एक शाम वो आकर के,
ले जाती थी मदीने पर।
सब बोले आलम-ए-तन्हाई
कितनी आसानी से झेल गए,
वरना कोई भी मौसम,
कैसा भी दिन हो,
या कोई भी क़ुव्वत (ताक़त),
अश्रु रोक नहीं पाती थी।
पर किसको पता था कि,
पास वाली मस्जिद से,
हर उस शाम निकल कर अज़ान,
सीधे मुझको बहलाने आती थी।
पर अब नीली सी दिखने वाली धरती
शायद लहू लाल सी दिखती होगी।
कौन जाने अब आगे की
दुनिया की रीत कैसी होगी ?
उड़ते पंछी भी शायद अब
बंधे-बंधे से रहते होंगे,
जो मानव से हैवान हुए वो
जाने कब फिरसे मानव होंगे ?
जब कुढ़-कुढ़ के मानवता
एक कोने में छुप जाएगी।
और ख़ौफ़ के आलम से
रातों की नींद भी उड़ जाएगी।
उम्मीद करता हूँ तब भी,
पास वाली मस्जिद से,
हर उस रात निकल कर अज़ान,
सीधे मुझको सुलाने आएगी।
- गौतम

A different one but yet the amazing and deep from your side. :)
ReplyDeleteKeep writing brother !! :)
D.E.E.P.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletethis is something called "THE" Gautam's work...ek number bhai
ReplyDeleteFor the first time in all these years, I didn't have to read your poem twice to understand what it means.
ReplyDeleteKeep blogging!
:D