रमज़ान


ब्लॉग के एक वर्ष पूर्ण होने के मौके पर
*ईद मुबारक़*


कभी-कभी बैठ कर यही सोचता हूँ कि, ऐसे कितने ही सपने, कितने ही काम, कितनी ही ख्वाहिशें हैं जो अधूरी हैं, ताज़्ज़ुब होता है की क्या कभी वो अपने अंजाम तक पहुंचेंगी? क्या कोई ऐसा वक़्त या ऐसी दुनिया है जहाँ यह अधूरे नहीं हों? पर शायद कुछ सवालों के जवाब कभी नहीं मिलते।

उन पंक्तियों की प्रस्तुति जो उतरी तो थीं किसी कविता में ढलने के लिए पर शायद उस अंजाम में पहुँचने में अभी वक़्त है !


(1). क्योंकि ज़रूरी नहीं कि जो दिख नहीं रहा वो है भी नहीं...






(2). जितना पानी अभी कूलर में डाल रहे हैं,उतना कभी किसी पेड़
      पे डाल दिया होता,तो आज कूलर में पानी नहीं डाल रहे होते |






(3). हॉस्टल नंबर 8 और उसके परिंदों के नाम....






(4). खुशकिस्मती, इस बात की, कि जीवन को मतलब देने
वाले लोग, मेरे जीवन में मौज़ूद  हैं |  

(विभोर दुबे की रचना 'संहार' का एक अंश)






(5). नादान है, मुँह उठा के चली आती है,
     भूख को क्या पता, रमज़ान क्या है!!




धन्यवाद

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