बंटवारा


आठ साल से दिवाली में ज़िक्र न आया ।
बंटवारे ने खींच, बेटों को घर बुलवाया ॥


बड़े ऐब से हो गयीं थी जो परायी ।
याद उनको भी अपनी अम्मा की आयी ॥

छुटके ने खेतों का पूरा नाप लगाया ।
अम्मा से गोदी में रख के सर सहलाया ॥

बड़के ने बैठ कर हिसाब बनाया ।
अम्मा लेके आयी गरम चाय का प्याला ॥

गुड़िया ने तारीफों के पुल सास के बांधे ।
पोतों को खिलाते थक गए माँ के काँधे ॥

फिर तीनों बैठे, आपस में कुछ फुसफुसाया ।
थक के लेटे, नींद का गायब था साया ॥

सुबह, औलादों के हाथों में थी मोटी गड्डी ।
दुख रही थी अम्मा की रीढ़ की हड्डी ॥

सालों से जिस घर में था फैला मातम ।
वहाँ सबकी आँखों में चमक का कैसा आलम !!

अम्मा खुश थी बेटों से वो मिल तो पायी ।
बेटे खुश थे अम्मा उनके काम तो आयी ॥

यही घूम रहा था अम्मा और बेटों के सर में ।
काश!! हर साल हो ऐसा बंटवारा घर में ॥

- गौतम


Comments

  1. तुमने पूछा था,
    मुझसे,
    इक रोज़
    क्या है तुम्हारे,
    दर्द का रँग...?
    और,मैंने
    उल्टा पूछ लिया था तुमसे... !
    कौन सा रँग,
    तुम्हें पसंद है,
    दर्द का... ?
    फिर, तुम
    हो गईं थीं खामोश,
    कुछ नहीं बोली थी,
    सिर्फ़,
    नीले आकाश की तरफ़
    देखते हुए
    मुस्करा भर दिया था,
    तुमने.... !
    और, मैं
    तब से,
    सहेज रहा हूँ,
    अपने सीने में
    न जाने कितने तरह के
    रंगों का दर्द... !
    न जाने कौन सा रँग,
    तुम्हें पसंद आ जाए...
    मेरे दर्द का.... !
    बस,
    एक गुज़ारिश है,
    तुमसे... !
    मत माँगना,
    मुझसे कभी,
    कोरा सफ़ेद रँग....
    दर्द का.... !
    क्यूंकि,
    तुम जानती हो,
    सारे रंगों को मिलाकर ही
    बनता है सफ़ेद रँग... !
    और, मुमकिन नहीं
    मेरे लिए,
    मिला पाना,
    एक ही रँग में,
    अपने दर्द के
    सारे रंगों को..... !! "शैलेश"

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